देखता हूं परिंदों को उड़ते हुए
सोचता हूँ किस कदर आजाद हैं ये
इन्हें बस अपनी मौज में जीना है
ना कोई रोकता है इन्हें
ना ही किसी की फिक्र है
ना है तमन्ना कुछ पाने की
ना कल की चिंता ना फिक्र ज़माने की
निकल तो जाते हैं खाने की तलाश में
मगर लौट आते हैं शाम ढलते ही
देखता हूँ खुद को तो एहसास होता है
कुछ पाने की तमन्ना में हम बंधे हुए हैं
ना फुर्सत मिलती है काम से
ना कुछ वक़्त अपने पास होता है
ना अपनी मर्जी के ही हम मालिक हैं
सुबह से शाम हुई और शाम से सुबह हो गई
हमारी जिंदगी ना जाने कहाँ खो गई
हमसे तो बेहतर ये परिंदे हैं
जो अपनी मर्जी के मालिक और आज़ाद हैं
एक हम हैं जो कठपुतली की तरह नाचते हैं
आज से ही होने लगती है हमें कल की फिक्र
जीना है मुझे भी इन परिंदों की तरह
गुलामी की जंजीरों से आज़ाद हो कर
उड़ना है इन परिंदों की तरह बेफिक्र हो कर
लौट आना है शाम ढलते ही अपनों के पास
हँसना है मुझे भी दिल खोल कर विक्षिप्त की तरह
सोना है मुझ गहरी नींद में दुनिया से बेफिक्र हो कर
चिल्लाना है मुझे जा कर वादियों में कहीं
कुछ वक़्त के लिये बस वहीं का हो जाना है
करना है शुक्रिया अदा मुझे इस जिंदगी का
मुझे भी जिंदगी के हर लम्हे को जीना है
-साहिल
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