सोच रहा हूँ की मोहब्बत के कुछ राज़ लिखू,
कुछ अनसुलझे सवालो के जवाब लिखू।
ये दिल करता है अब भी वकालत उस बेवफा की,
सोच रहा हूँ, आज कुछ दिल के खिलाफ लिखू।
रो पड़ती है अक्सर ये कलम भी दास्ताँ-ऐ-दिल लिखते हुए,
कैसे मैं मोहब्बत के वो जज्बात लिखू।
वक़्त की बारिस से धुल जाती है वो मोहब्बत की यादें,
कैसे मैं अपनी दास्ताँ-ऐ-मोहब्बत की किताब लिखू।
क्यों बदनाम करते हो तुम उसकी मोहब्बत को बेवजह मेरे दोस्त
ReplyDeleteहो सकता है की इसमें उसकी कोई मजबूरी रही हो...