वक्त खोया, सुकून खोया, सारा जीवन लूटा दिया दिया
दो वक्त की रोटी की खातिर जाने क्या कुछ गंवा दिया
अपनो से दूर हुए, जाने कितने मजबूर हुए
साथ छूटा, यार छूटे, बहुत कुछ है जो भुला दिया
दो वक्त की रोटी की खातिर जाने क्या कुछ गंवा दिया
ना खुशी मानने का वक्त है ना रोने की ही फुर्सत है
घर की जिम्मेवारियों ने हमे कितना नीचे दबा दिया
दिन अपना गुलाम हुआ कुछ पाने को चाहत में
रात आई तो दिन के बोझ ने थक कर सुला दिया
दो वक्त की रोटी की खातिर जाने क्या कुछ गंवा दिया
जाने कितने सपने थे, जाने क्या कुछ करना था
जाने कितनी खुवाहिशें थी वक्त ने सब छुड़ा दिया
निकलते है अब बस शाम होने के इंतजार में
इस छोटी सी जिंदगी ने ना जाने क्या क्या सीखा दिया
दो वक्त की रोटी की खातिर जाने क्या कुछ गंवा दिया
-साहिल
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