Friday, February 5, 2021

रिश्ते, अकेलापन और दुख

रिश्ते कहने के लिये तो बहुत छोटा शब्द है किन्तु इसको जितना समझा जाये उतना ही कम है। जब हम पैदा होते हैं तब से मरने के सफ़र तक हम रिश्तों में बंधे रहते है। कुछ रिश्ते तो हमारे जन्म के साथ ही बन जाते हैं पर कुछ रिश्ते वक़्त के साथ खुद-ब-खुद बनते और टूटते चले जाते हैं।

हमारे जीवन में रिश्तो की एहमियत बहुत ही ज्यादा होती है। हमें रिश्तो से खुशी, प्यार, अपनापन, साथ और सहयोग मिलता है। हम अपना जीवन बिना रिश्तो के कल्पना भी नहीं कर सकते। किन्तु जीवन में कई मोड़ ऐसे आते जब सब रिश्तो के बावजूद भी हम खुद को अकेला पाते हैं और हमें लगता है की हमारे सुख-दुख बाटने के लिए कोई नहीं है। कुछ हम खुद को अकेला मेहसूस करते हैं और कुछ हम खुद को अकेला कर लेते हैं। ये अकेलापन दुख में बदल जाता है और ये दुख बढ़ता ही जाता है। कई बार ये दुख इतना बढ़ जाता है की हमारे मन मे हमेशा गलत और बुरे ख्याल ही आते रहते हैं। जहाँ तक मैने समझा है मुझे हमेशा ये ही लगता है की हमें अकेलापन इसलिये नहीं मेहसूस होता की हम अकेले हैं बल्कि अकेलापन इसलिये मेहसूस होता है की जिसका साथ हमें चाहिये वो हमारे साथ नहीं है। किसी एक खास इंसान का साथ पाने की अभिलाषा हमें सबसे दूर कर देती है। हम हमेशा इसी दुख में जीने लगते है की ऐसा क्यूँ हो रहा है, हम उस इंसान के लिये इतना करते है वो हमें क्यूँ अपना नहीं समझता। या हम इश्वर से शिकायत करते रहते हैं की जब वो इंसान हमारे नसीब में नहीं था तो हमें मिलया ही क्यूँ? उस एक इंसान की बेरुखी की वजह से हम सभी से बेरूखा सा बर्ताव करने लगते हैं और ये दुख व बेचैनी बढती ही जाती है। हम कुछ अच्छा सोच ही नहीं पाते, हमें बस ये अभिलाषा रहती है की किसी भी तरह से उस इंसान से बात हो जाये और जब उस इंसान से बात हो जाती है तो हमें सुकून भी मिल जाता है पर कितनी देर के लिये?

रिश्तो के बन्धन से निकलना इतना असान भी नहीं होता। इंसान जीता भी है तो पल-पल मर-मर कर। जाने-अनजाने में हम अपना कितना ही जीवन दुख में बिता देते है, अखिर क्यूँ? ऐसी क्या बात है जिसकी वजह से हम खुद अकेले खुश नहीं रह सकते?

हमें अपने जीवन में कुछ बदलाव लाने की जरुरत है, अखिर पूरी उम्र तो हम दुखी रह कर नहीं बिता सकते और इस बदलाव की सुरुवात आज से और अभी से करनी होगी। सब कुछआसान नहीं है और ना एक एक दिन में होने वाला है किन्तु एक दिन जरुर होगा। बस आपको सुरुवात करनी है।

हमारा दिमाग बड़ा ही शक्तिशाली है और ये बहुत कमजोर भी है। दिमाग का कमजोर होना है या शक्तिशाली ये निर्भर करता है हमारी सोच पर। अगर हम बस गलत और नाकारात्मक ही सोचेंगे तो ये बहुत कमजोर हो जायेगा और हमें भी कमजोर करेगा किन्तु यदि हम अच्छा और सकारत्मक सोचे तो ये बहुत ही शक्तिशाली हो जायेगा और आपको भी शक्तिशाली बना देगा। किन्तु प्रशन वही है की ऐसा किया कैसे जाये? दिमाग मे तो खुद-ब-खुद ही नाकारात्मक विचार आते हैं जिन पर हमारा वश ही नहीं चलता। यदि दिमाग हमारे वश में हो तो अच्छी बात है पर अगर हम दिमाग के वश में तो ये बहुत ही बुरी बात है। जब हम दिमाग के वश में होंगे तो दिमाग हमसे वही सब करवाएगा जो वो चहता है और अगर दिमाग हमारे वश मे होगा तो हम उससे वही करवा सकते हैं जो हम चाहते हैं।

हमें अच्छी बातें ज्यादा देर तक याद नहीं रहती किन्तु बुरी बातें हमें हमेशा याद रहती हैं। कई बार तो बुरी बातें हमारे मन में इतना घर कर जाती हैं की हम पूरी उमर भी उन बातों को भूल नहीं पाते। ये कमी हमारी ही है, हमने अपने दिमाग को ही अब ऐसा बना लिया है। हमें अपने दिमाग पर काबू पाना है और उसके लिये सबसे पहले आपको ये समझना होगा की कोई भी बात हो वो सिर्फ काल्पनिक है और सिर्फ आपके मन के विचार हैं या ये हक़ीक़त है। आपको अपनी एक आदत डालनी है। आपको अपने दिमाग के साथ बहस करनी है। जब भी आपको कोई बात बुरी लगती है और दिमाग कहता है की ये गलत हुआ या उसने ये गलत किया है, उसने मेरा विश्वास तोड़ा है तो आपको अपने दिमाग से सवाल करने हैं की ठीक है जो हुआ सो हुआ, क्या तुझे पक्का पता है?दिमाग कहेगा की हाँ। फिर तुम्हे सवाल करना है की कोई सबूत है। दिमाग कहेगा की नहीं या हाँ जो भी कहे। फिर आपको पूछना है की अगर वो ऐसा नहीं करता तो आपके जीवन में क्या बादल जाता या उसने ऐसा किया है तो आपके जीवन में ऐसा क्या बदल गया जिसकी वजह से परेशान है। आपको अपने दिमाग से जब तक बहस करनी है जब तक आपके सवालो के जवाब दिमाग के पास ना हो। ऐसा करने से शायद आरम्भ में कोई खास फर्क ना पड़े पर आपको हमेशा के लिये ही अपनी ये आदत डालनी पड़ेगी। पर जैसा दिमाग कहे वैसा ही आपको नहीं मान कर बैठना है।

हमें दुख दूसरो की वजह से कम और अपनी अभिलाषा और इच्छा की वजह से ज्यादा मिलते है तो दूसरा काम हमें बस वही करना है। हमें अपनी इच्छाओं पर काबू पाना है। वो भी हमारे लिये ऐसा करे, हम उनके लिये इतना करते हैं वो भी करें। हम उनके दुख में हमेशा साथ थे वो भी हो। ये सब बातें भी हमारे दुख की एक वजह हैं। हमें खुद पर भरोशा करना है। हमें अपने मन को समझना है की कोई हमारे साथ हो या ना हो हमें फर्क नहीं पड़ता और ना हमारा जीवन बादल जाता है। कुछ भी हो, कोई भी हो हमेशा आपके साथ नहीं रहने वाला है किन्तु आप का अपने ऊपर विश्वास हमेशा रहेगा बस आपको वो विश्वास खुद पर करना है।

अक्सर हम वही तो बाटते हैं जो हमारे पास सबसे ज्यादा होता है फिर चाहे वो खुशी हो या गम। खुश रहो हरदम।।


ग़ज़ल

तुझसे तो फिर भी मिल लेता हूँ खवाबों में,
खुद से ही मिले मुझे जमाना हो गया।
अब कहाँ रहा ये पहले जैसा दिल भी,
अब ये दिल खंडर सा वीराना हो गया।
लोगो से क्या शिकवा अगर साथ छोड़ दिया,
अंधेरों में अपना साया भी बेगाना हो गया।
रूठा-रूठा सा है यार तो रहने दो खफा,
रूठने-मनाने का रिवाज़ जरा पुराना हो गया।
खुद की खुशी के लिये टूटे वादे तो टूटने दो,
अब कौन सा जरुरी वादो को निभाना हो गया।
जब भी बयाँ करता हूँ मैं अपना हाल-ऐ-दिल,
लोग कहते हैं ये 'साहिल' भी दीवाना हो गया।

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